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देवता: पवमानः सोमः ऋषि: त्रित आप्त्यः छन्द: उष्णिक् स्वर: ऋषभः काण्ड:

प्रा꣣णा꣡ शिशु꣢꣫र्म꣣ही꣡ना꣢ꣳ हि꣣न्व꣢न्नृ꣣त꣢स्य꣣ दी꣡धि꣢तिम् । वि꣢श्वा꣣ प꣡रि꣢ प्रि꣣या꣡ भु꣢व꣣द꣡ध꣢ द्वि꣣ता꣢ ॥१०१३॥

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स्वर-रहित-मन्त्र

प्राणा शिशुर्महीनाꣳ हिन्वन्नृतस्य दीधितिम् । विश्वा परि प्रिया भुवदध द्विता ॥१०१३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्रा꣣णा꣢ । प्र꣣ । आना꣢ । शि꣡शुः꣢꣯ । म꣣ही꣡ना꣢म् । हि꣣न्व꣢न् । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । दी꣡धि꣢꣯तिम् । वि꣡श्वा꣢꣯ । प꣡रि꣢꣯ । प्रि꣣या꣢ । भु꣣वत् । अ꣡ध꣢꣯ । द्वि꣡ता꣢ ॥१०१३॥

सामवेद » - उत्तरार्चिकः » मन्त्र संख्या - 1013 | (कौथोम) 3 » 2 » 18 » 1 | (रानायाणीय) 6 » 6 » 3 » 1


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हिन्दी : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

प्रथम ऋचा की पूर्वार्चिक में ५७० क्रमाङ्क पर परमात्मा के महत्त्व के विषय में व्याख्या की गयी थी। यहाँ वही विषय प्रकारान्तर से कहा जा रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः -

(प्राणा) सबको प्राण देनेवाला, (शिशुः) शिशु के समान प्रेम करने योग्य, (महीनाम्) मङ्गल, बुध, बृहस्पति, चन्द्रमा आदि की भूमियों के पृष्ठ पर (ऋतस्य) सूर्य की (दीधितिम्) किरणावलि को (हिन्वन्) भेजता हुआ, पवमान सोम अर्थात् सर्वान्तर्यामी परमेश्वर (विश्वा) सब (प्रिया) प्रिय वस्तुओं में (परि भुवत्) चारों ओर से व्याप्त है। (अध) और (द्विता) दो प्रकार के इसके कार्य हैं—बर्फ, नद, नदी, समुद्र, चन्द्रमा, बादल आदि सौम्य कार्य तथा आग, बिजली, सूर्य, आदि तैजस कार्य ॥१॥

भावार्थभाषाः -

जो जगदीश्वर सब प्राणियों को प्राण देता है, सूर्य के प्रकाश को सब जगह बिखेरता है, सर्वान्तर्यामी होता हुआ सब जगत् की व्यवस्था करता है, उसकी सब मनुष्य आराधना क्यों न करें? ॥१॥

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संस्कृत : आचार्य रामनाथ वेदालंकार

तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ५७० क्रमाङ्के परमात्ममहत्त्वविषये व्याख्याता। अत्र स एव विषयः प्रकारान्तरेणोच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः -

(प्राणा) प्राणः, सर्वेषां प्राणयिता, (शिशुः) शिशुरिव स्पृहणीयः, (महीनाम्) मङ्गलबुधबृहस्पतिचन्द्रादिषु विद्यमानानां पृथिवीनां पृष्ठे (ऋतस्य) सूर्यस्य। [ऋतमित्येष (सूर्यः) वै सत्यम्। ऐ० ब्रा० ४।२०।] (दीधितिम्) किरणावलीम् (हिन्वन्) प्रेषयन्, पवमानः सोमः सर्वान्तर्यामी परमेश्वरः (विश्वा) विश्वानि (प्रिया) प्रियाणि वस्तूनि (परि भुवत्) सर्वतः व्याप्नोति। (अध) अथ च (द्विता) द्विधा अस्य कार्याणि सन्ति—हिमनदनदीसमुद्रचन्द्रपर्जन्यप्रभृतीनि सौम्यानि अग्निविद्युत्सूर्यादीनि तैजसानि च ॥१॥

भावार्थभाषाः -

यो जगदीश्वरः सर्वान् प्राणिनः प्राणयति, सूर्यप्रकाशं सर्वत्र विकिरति, सर्वान्तर्यामी सन् सर्वजगद्व्यवस्थां करोति स सर्वैर्जनैः कुतो नाराधनीयः ॥१॥

टिप्पणी: १. ऋ० ९।१०२।१, साम० ५७०।